"एक महत चेतना की सशक्त धारा आ रही है, जिसके प्रवाह में राष्ट्रों की पूर्वाग्रहों और संकीर्णताओं की दीवारें चूर चूर हो जायेंगी और तब विश्व के समस्त राष्ट्र प्रेम का महोत्सव मनाएंगे|"- ठाकुर दयानंद देव

यदि ईश्वर सत्य है, तो जगत भी सत्य है !

Thakur Dayanand Devठाकुर दयानंद संकीर्ण मानसिकता से परे थे | वे कभी भी सीमित जन समुदाय, प्रान्त या राष्ट्र के विषय में नहीं सोचते थे |वे सम्पूर्ण विश्व के विषय में चिंतित रहते थे और सभी के कल्याण की कामना करते थे | अपने शिष्यों से हमेशा कहा करते थे, “हम लोग विश्वकल्याण के लिए कार्य करने हेतु आये हैं, इसलिए केवल स्वयं के हित के लिए कार्य और कामना करना हमारे लिए पाप है |” उन्होंने सदा इस बात के लिए उत्प्रेरित किया कि समष्टि के सुख के लिए हम व्यष्टि के सुख का त्याग करें, जनहित के लिए व्यक्तिगत हित को भुला दें | जातीयता और प्रान्तीयता की संकीर्णता से मुक्त होकर विश्वहित के लिए कार्य करने की न केवल प्रेरणा दी, इसे सिद्ध भी किया | उन्होंने यही चाहा कि पूरब और पश्चिम के भेदभाव को मिटाकर इस धरती के सभी मानव प्रेमपूर्ण भाव से रहें | उन्होंने अपने आश्रम में विश्व-बंधुत्व की भावना की गहरी नींव डाली | उन्होंने एक ऐसा जीवन दर्शन उपस्थित किया जिसमें विश्व के सारे दर्शन समाविष्ट हैं | यहाँ यह ज्ञातव्य है कि उनकी शैक्षणिक योग्यता कम थी किन्तु जैसा कि उन्होंने स्वयं कहा है, जब ईश्वर की दिव्य-ज्योति व्यक्ति को प्राप्त हो जाती है, उसे दिव्यचक्षु प्राप्त हो जाता है | वह ज्ञान का सागर बन जाता है | उन्होंने व्यक्ति का एकांगी विकास नहीं चाहा वरन सर्वांगीण विकास चाहा; जिससे व्यक्ति शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक सभी दृष्टियों से विकसित हो | इस प्रकार उन्होंने एक नव समाज की स्थापना चाही, नया युग लाना चाहा, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति का प्रत्येक राष्ट्र का सर्वांगीण विकास हो सके | उनकी मान्यता थी कि यह जगत परब्रम्ह की स्वयं की अभिव्यक्ति है | विभिन्न रूपों में उसी सच्चिदानंद ने स्वयं को व्यक्त किया है | इसलिए यदि ईश्वर सत्य है, तो यह जगत भी सत्य है | अतः यदि ईश्वर को जानना और पाना है तो इस जगत और उनकी रचना से प्रेम करना पड़ेगा | पहले जगत को ही जानना और पाना होगा | जगत से विमुख होने वाला व्यक्ति उसे नहीं पा सकता | भौतिकता और आध्यात्मिकता को एक दूसरे के विरुद्ध रखकर काम नहीं चल सकता | जीवन को सुचारू रूप से चलाने के लिए भौतिकता अपेक्षित है ही लेकिन भौतिकता ही सबकुछ नहीं है | उस पर आध्यात्मिकता का नियंत्रण होना ही चाहिए अन्यथा मात्र भौतिकता अपना सर्वनाश कर लेगी | दयानंद ने बतलाया कि विश्व-एकता के लिए धर्म की आवश्यकता है लेकिन वह धर्म रुढियों और आडम्बरों में बंधा नहीं होगा | वह केवल धार्मिक पुस्तकों में सीमित नहीं होगा | वह किसी स्थान विशेष में भी नहीं होगा | वह किसी जाति-समाज या राष्ट्र का नहीं होगा | वह विश्व का होगा | वह विश्व-धर्म होगा | वह धर्म सार्वजनिक होगा | समग्र विश्व का होगा | हर मनुष्य की आस्था और आत्मा उसमें होगी | सारी मानवता उस धर्म को अपनाएगी | और वही धर्म विश्व में एकता स्थापित करने में समर्थ होगा | विश्व के सभी धर्मों का सारतत्व उसमें होगा | विश्व के सभी धर्मों ने मूल रूप से एक ही बातें कहीं | बुद्ध ने जो कहा वही महावीर ने कहा, वही ईसा ने कहा, वही मुहम्मद ने कहा वही रामकृष्ण और चैतन्य ने कहा | किसी ने भी स्वार्थ, हिंसा, लोभ को धर्म में स्थान नहीं दिया | उपनिषद्, पुराण, रामायण, महाभारत, गीता, कुरान, बाइबल आदि सभी के उपदेश किसी विशिष्ट व्यक्ति या समाज के लिए नहीं हैं |हर मनुष्य के लिए उपादेय हैं, उनमें कहीं भी रंच मात्र भी मतभेद नहीं है | ठाकुर दयानंद ने कहा कि हमें उन दीवारों को तोड़ देना चाहिए जो हमने स्वार्थवश बनाया है और अपने को इस एक पिता की संतान मानकर विश्व-विश्व-बंधुत्व की भावना से प्रेरित होकर कार्य करना चाहिए | समय-समय पर ईश्वर ने अपने को विभिन्न रूपों में प्रकट किया है जिसे हम अवतार कहते हैं, मसीहा कहते हैं, दूत कहते हैं | ये अवतार ये दूत उसी की ज्योति से दीपित होकर हमें ज्ञान का प्रकाश देते हैं | ये हमें उस परम पिता तक पहुँचने का मार्ग बतलाते हैं | मार्ग अलग अलग हो सकते हैं किन्तु लक्ष्य एक ही हैं | हम जिससे चाहें उस मार्ग से जा सकते हैं , स्वेक्षा से किसी भी अवतार या मसीहा की पूजा कर सकते हैं | किन्तु हमें ध्यान रखना होगा कि सभी का लक्ष्य एक ही है | सभी उसी प्रभु की संतान हैं, ये भिन्न-भिन्न रूप उसी के हैं, अतः हमें किसी विशिष्ट मार्ग, अवतार या अनुयाई की आलोचना या घृणा नहीं करनी चाहिए | यदि ऐसा मान कर चलेंगे तो किसी भी प्रकार का द्वेष या अलगाव पैदा नहीं हो सकता | हम एक दुसरे को प्रेम कर पायेंगे और उनसे प्रेम ले पायेंगे | मानव मात्र की एकता से प्रेरित होकर हम स्वयं भी जी सकेंगे और दूसरों को भी जीने की सुविधा दे सकेंगे | विश्व-संघ की स्थापना और उसमें विश्वास ही हमारी इस भावना का प्रमाण (प्रतीक) होगा | -अनुवादक: पौहारी शरण मिश्रा

टिप्पणी करे