"एक महत चेतना की सशक्त धारा आ रही है, जिसके प्रवाह में राष्ट्रों की पूर्वाग्रहों और संकीर्णताओं की दीवारें चूर चूर हो जायेंगी और तब विश्व के समस्त राष्ट्र प्रेम का महोत्सव मनाएंगे|"- ठाकुर दयानंद देव

Archive for अगस्त, 2013

यदि ईश्वर सत्य है, तो जगत भी सत्य है !

Thakur Dayanand Devठाकुर दयानंद संकीर्ण मानसिकता से परे थे | वे कभी भी सीमित जन समुदाय, प्रान्त या राष्ट्र के विषय में नहीं सोचते थे |वे सम्पूर्ण विश्व के विषय में चिंतित रहते थे और सभी के कल्याण की कामना करते थे | अपने शिष्यों से हमेशा कहा करते थे, “हम लोग विश्वकल्याण के लिए कार्य करने हेतु आये हैं, इसलिए केवल स्वयं के हित के लिए कार्य और कामना करना हमारे लिए पाप है |” उन्होंने सदा इस बात के लिए उत्प्रेरित किया कि समष्टि के सुख के लिए हम व्यष्टि के सुख का त्याग करें, जनहित के लिए व्यक्तिगत हित को भुला दें | जातीयता और प्रान्तीयता की संकीर्णता से मुक्त होकर विश्वहित के लिए कार्य करने की न केवल प्रेरणा दी, इसे सिद्ध भी किया | उन्होंने यही चाहा कि पूरब और पश्चिम के भेदभाव को मिटाकर इस धरती के सभी मानव प्रेमपूर्ण भाव से रहें | उन्होंने अपने आश्रम में विश्व-बंधुत्व की भावना की गहरी नींव डाली | उन्होंने एक ऐसा जीवन दर्शन उपस्थित किया जिसमें विश्व के सारे दर्शन समाविष्ट हैं | यहाँ यह ज्ञातव्य है कि उनकी शैक्षणिक योग्यता कम थी किन्तु जैसा कि उन्होंने स्वयं कहा है, जब ईश्वर की दिव्य-ज्योति व्यक्ति को प्राप्त हो जाती है, उसे दिव्यचक्षु प्राप्त हो जाता है | वह ज्ञान का सागर बन जाता है | उन्होंने व्यक्ति का एकांगी विकास नहीं चाहा वरन सर्वांगीण विकास चाहा; जिससे व्यक्ति शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक सभी दृष्टियों से विकसित हो | इस प्रकार उन्होंने एक नव समाज की स्थापना चाही, नया युग लाना चाहा, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति का प्रत्येक राष्ट्र का सर्वांगीण विकास हो सके | उनकी मान्यता थी कि यह जगत परब्रम्ह की स्वयं की अभिव्यक्ति है | विभिन्न रूपों में उसी सच्चिदानंद ने स्वयं को व्यक्त किया है | इसलिए यदि ईश्वर सत्य है, तो यह जगत भी सत्य है | अतः यदि ईश्वर को जानना और पाना है तो इस जगत और उनकी रचना से प्रेम करना पड़ेगा | पहले जगत को ही जानना और पाना होगा | जगत से विमुख होने वाला व्यक्ति उसे नहीं पा सकता | भौतिकता और आध्यात्मिकता को एक दूसरे के विरुद्ध रखकर काम नहीं चल सकता | जीवन को सुचारू रूप से चलाने के लिए भौतिकता अपेक्षित है ही लेकिन भौतिकता ही सबकुछ नहीं है | उस पर आध्यात्मिकता का नियंत्रण होना ही चाहिए अन्यथा मात्र भौतिकता अपना सर्वनाश कर लेगी | दयानंद ने बतलाया कि विश्व-एकता के लिए धर्म की आवश्यकता है लेकिन वह धर्म रुढियों और आडम्बरों में बंधा नहीं होगा | वह केवल धार्मिक पुस्तकों में सीमित नहीं होगा | वह किसी स्थान विशेष में भी नहीं होगा | वह किसी जाति-समाज या राष्ट्र का नहीं होगा | वह विश्व का होगा | वह विश्व-धर्म होगा | वह धर्म सार्वजनिक होगा | समग्र विश्व का होगा | हर मनुष्य की आस्था और आत्मा उसमें होगी | सारी मानवता उस धर्म को अपनाएगी | और वही धर्म विश्व में एकता स्थापित करने में समर्थ होगा | विश्व के सभी धर्मों का सारतत्व उसमें होगा | विश्व के सभी धर्मों ने मूल रूप से एक ही बातें कहीं | बुद्ध ने जो कहा वही महावीर ने कहा, वही ईसा ने कहा, वही मुहम्मद ने कहा वही रामकृष्ण और चैतन्य ने कहा | किसी ने भी स्वार्थ, हिंसा, लोभ को धर्म में स्थान नहीं दिया | उपनिषद्, पुराण, रामायण, महाभारत, गीता, कुरान, बाइबल आदि सभी के उपदेश किसी विशिष्ट व्यक्ति या समाज के लिए नहीं हैं |हर मनुष्य के लिए उपादेय हैं, उनमें कहीं भी रंच मात्र भी मतभेद नहीं है | ठाकुर दयानंद ने कहा कि हमें उन दीवारों को तोड़ देना चाहिए जो हमने स्वार्थवश बनाया है और अपने को इस एक पिता की संतान मानकर विश्व-विश्व-बंधुत्व की भावना से प्रेरित होकर कार्य करना चाहिए | समय-समय पर ईश्वर ने अपने को विभिन्न रूपों में प्रकट किया है जिसे हम अवतार कहते हैं, मसीहा कहते हैं, दूत कहते हैं | ये अवतार ये दूत उसी की ज्योति से दीपित होकर हमें ज्ञान का प्रकाश देते हैं | ये हमें उस परम पिता तक पहुँचने का मार्ग बतलाते हैं | मार्ग अलग अलग हो सकते हैं किन्तु लक्ष्य एक ही हैं | हम जिससे चाहें उस मार्ग से जा सकते हैं , स्वेक्षा से किसी भी अवतार या मसीहा की पूजा कर सकते हैं | किन्तु हमें ध्यान रखना होगा कि सभी का लक्ष्य एक ही है | सभी उसी प्रभु की संतान हैं, ये भिन्न-भिन्न रूप उसी के हैं, अतः हमें किसी विशिष्ट मार्ग, अवतार या अनुयाई की आलोचना या घृणा नहीं करनी चाहिए | यदि ऐसा मान कर चलेंगे तो किसी भी प्रकार का द्वेष या अलगाव पैदा नहीं हो सकता | हम एक दुसरे को प्रेम कर पायेंगे और उनसे प्रेम ले पायेंगे | मानव मात्र की एकता से प्रेरित होकर हम स्वयं भी जी सकेंगे और दूसरों को भी जीने की सुविधा दे सकेंगे | विश्व-संघ की स्थापना और उसमें विश्वास ही हमारी इस भावना का प्रमाण (प्रतीक) होगा | -अनुवादक: पौहारी शरण मिश्रा

सन्यास का अर्थ क्या है ?

is this the religion ?‘सन्यास का अर्थ है जीने के लिए मरना। वह मनुष्य के स्थूल स्वार्थी जीवन की पूर्ण मृत्यु है, जो साधारण व्यक्ति की तरह भौतिक क्षेत्र पर जीने का आदी हो चुका है। सन्यास एक नए जीवन का जन्म है जहां ‘व्यक्ति’ का अंत हो जाता है, और उसके विलक्षण व्यक्तित्व के नए जन्म के आवाहन में समग्र सृष्टि उसके समक्ष खड़ी हो जाती है और वह विश्व प्रेम का अद्भुत स्वरूप धारण कर लेता है। ऐसा करने के लिए वह घोषित करता है कि समग्र सृष्टि उसके भीतर है और किसी भी प्राणी को उससे डरने की ज़रूरत नहीं। वह इस धरती के सभी जीवों को अभयदान देता है क्योंकि वह और कुछ नहीं, सिर्फ प्रेम है, और कुछ नहीं, सिर्फ त्याग है। सन्यास दीक्षा समारोह के दौरान लिए गए प्रण के अनुसार उसके अंतर से करुणा उजागर होती है।

लेकिन क्या वास्तव में ऐसा होता है ?

नहीं | ऐसा नहीं होता | न तो गुरु ही स्वयं भौतिक जगत से मुक्त होता है और न ही शिष्य को मुक्त कर पाता है | यहाँ भी घृणा, द्वेष, शोषण, भय… सभी कुछ होता है | सब कुछ जो भौतिक जगत में होता है, अंतर होता है तो केवल वस्त्रों के रंग का | यहाँ भी जिसके हाथ में सत्ता होता है वह शोषक बन जाता है और जिसके हाथ में सत्ता नहीं होती वह सत्ता पाने के लिए साम-दाम-दंड-भेद अपनाता है | यहाँ भी गुंडे-बदमाश पाले जाते हैं | यहाँ भी हत्या या प्रताड़ना के लिए सुपारी दी जाती है…

कहते हैं की गुरु के प्रति समर्पण भाव होना चाहिए, लेकिन गुरु ही यदि पथ-भ्रष्ट हो तो कोई समर्पण भाव कहाँ से लाये ? गुरु शिष्य बटोरते हैं ज्ञान मार्ग दिखाने के लिए नहीं, अपितु अपनी सेवा करवाने के लिए | किसी गुरु को कमर दर्द है तो शिष्य तलाशते हैं जिसे मालिश आती हो, किसी को आश्रम में झाड़ू-पोंछा के लिए शिष्य की आवश्यकता होती है तो किसी को खाना बनाने वाले शिष्य की आवश्यकता होती है |शिष्य भी अजीबोगरीब होते हैं | हमेशा भयाक्रांत रहते हैं |

क्या बदला इन सन्यासियों के जीवन में ? वही भय कल तक नौकरी करते समय था आज भी है | कल भी भय रहता था कि मकान का किराया नहीं दिया तो मालिक-मकान नौकरी से निकाल देगा और आज भी है | कल भी भय से भगवान् की अराधना करते थे और आज भी | कल भी मौत से भय था आज भी… क्या यह संन्यास जीवन का अपमान नहीं ?

मेरी दृष्टि में संन्यास का अर्थ है स्वयं को ईश्वर को समर्पित करना | गुरु यदि पाखंडी है तो गुरु का दोष है, शिष्य उसके लिए जिम्मेदार नहीं है और ऐसे गुरु के लिए वह किसी भी कर्तव्य से मुक्त हो जाता है | ईश्वर ही उसका एक मात्र गुरु और रक्षक होता है | सन्यासी को किसी भी प्रकार के भय से मुक्त होना चाहिए है | सन्यासी को यह चिंता नहीं करनी चाहिए कि कल क्या होगा | वही होगा जो ईश्वर चाहेंगे इसलिए वर्तमान में क्या करना है और कैसे जीना है वही तय करे | पूजा-पाठ घंटे घड़ियाल का नाम सन्यास नहीं है, सन्यास है मुक्त भाव से ईश्वर की सृष्टि और उनकी रचनाओं का सम्मान, सेवा, संरक्षण व कल्याणार्थ कार्य करना | सन्यासी के लिए सम्पूर्ण विश्व ही उसका घर है | सन्यासी के लिए विश्व के सभी प्राणी उसके अपने हैं | वह सबके कल्याण व सुरक्षा के लिए यथा-संभव प्रयासरत रहता है | संन्यास का अर्थ प्रेम है | सन्यास का अर्थ है किसी भी कार्य को पूरी श्रद्धा व लगन से प्रेमपूर्वक करना |

किन्तु…जिस तरह पूरे घर की सफाई करने के लिए घर के एक कोने से ही शुरू करना पड़ता है, वैसे ही विश्व कल्याण भी तभी कोई कर सकता है जब उस राष्ट्र के कल्याण को अपना कर्तव्य समझे जिसमें उसने जन्म लिया या जिस में वह रह रहा है | शोषण और भ्रष्टाचार से पीड़ित राष्ट्र में आत्मज्ञान और ब्रम्हज्ञान प्राप्त करने का दिखावा करके अपने आश्रमों में बैठ कर भजन-कीर्तन करना और प्रवचन करना पीड़ितों और दुखियों और असहायों के प्रति मानसिक हिंसा है | भौतिक, आर्थिक, राजनैतिक व आध्यात्मिक शक्ति संपन्न होते हुए भी भ्रष्टाचारियों और दुष्टों के दमन में सहयोग न करना और “मैं सुखी तो जग सुखी” के सिद्धांत पर चलना अमानवीय है | ईश्वर ने मानव शरीर देकर हमें सृष्टि में निडरता से राक्षसों (शोषक, भ्रष्ट, द्वेशात्मक, हिंसक, बलात्कारी पाखण्डी, धूर्त मानसिकता के व्यक्तियों) के दमन के लिए भेजा है न कि धूनी रमा कर भजन-कीर्तन करने के लिए | -विशुद्ध चैतन्य

विश्व-बंधुत्व: एक स्वप्न जो अधुरा रह गया…

विश्व ने मानव से मानव और देश से देश के प्रेम के विषय में सोचा तक नहीं | संकीर्णता, जातीयता, प्रांतीयता और राष्ट्रीयता से ऊपर उठ ही नहीं सके | ऐसी स्थित में विश्व-बंधुत्व की भावना को कोई स्थान नहीं मिला | विश्व के सभी स्त्री-पुरुष भाई-बहन की तरह भी रह सकते हैं, यह भावना ही हास्यापद लगने लगी | सदियों के सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक उत्थान-पतन के कारण विश्वव्यापी आध्यात्मिक ह्रास और नैतिक पतन हो गया | कई धार्मिक युद्ध हुए, धार्मिक मानयताओं और विधियों में परिवर्तन हुए किन्तु धार्मिक उत्थान नहीं हुआ | क्योंकि धर्म केवल बाह्याडम्बरों तक ही सीमित रह गया | अंधविश्वासों की अंधकारों में ही धार्मिकता घुट कर रह गई | लोग ऋषियों के संदेशों; “वसुधैव कुटुम्बकम” को भूल गए | इतना सब होने के बाद कुछ ऐसे धार्मिक समाज सुधारक हुए जिन्होंने हिमालय की चोटियों, गंगा के कछारों में शान्ति और प्रेम के तात्विक संदेशों को सुनाकर दिग्भ्रमित लोगों को सदमार्ग की ओर अग्रसर करने की चेष्टा किये | भारत के ऋषि-मुनि, संत-तपस्वी सांसारिक जीवन के उलझनों में फंसे लोगों के लिए ज्योति स्तम्भ हैं, जिनके प्रकाश से मानवता अपने विकास की दिशा पहचानती है | डूबती हुई मानवता त्राण पा जाती है |

Shri Thakur Dayanand Dev (1881-1937)

श्री ठाकुर दयानंद देव (१८८१-१९३७)

श्री ठाकुर दयानन्द देव जी  के जीवन का उद्देश्य यही था, मानव के जीवन में, हृदय में और वर्तमान सामजिक व्यवस्था में एक आमूल परिवर्तन और वह परिवर्तन भी इसलिए कि विश्व का प्रत्येक मनुष्य एक दुसरे को अपना भाई समझ सके | प्रेम और स्नेह का सागर उमड़ पड़े, नैतिकता और आध्यात्मिकता का चरम विकास हो सके और मानवता शान्ति से विकसित हो सके | इतने महान और विशाल विचार और हृदय के स्वामी श्री श्री ठाकुर दयानन्द देव जी का जन्म १९ मई १८८१ ई० को सिलहट जिले के हबीबगंज सबडिविजन के बामई गाँव में हुआ था | यह स्थान अब बांग्लादेश में है | इनके पिता श्री गुरुचरण चौधरी और माँ श्रीमति कामख्या देवी आदर्श दंपत्ति माने जाते थे | दूसरों की सहायता करना इनके दैनिक जीवन का अंग था | एक दिन बालक दयानन्द ने अपनी माँ से पूछा, ” माँ, तुम्हें सबसे ज्यादा ख़ुशी कब मिलती है ?” माँ ने उत्तर दिया कि जब मैं तुम सबको खाना खिलाती हूँ और मैं चाहती हूँ कि संसार के सभी लोगों को उनकी पसंद का भोजन बनाकर खिलाऊँ…  बालक ने कहा, “तुम्हारी इच्छा अवश्य पूरी होगी” | माता-पिता ने इस बालक का नाम गुरुदास चौधरी रखा था लेकिन इनकी अभिरुचि धार्मिकता की ओर ज्यादा होने की वजह से सभी इन्हें साधू कहकर पुकारते थे | बचपन से ही इनका झुकाव संकीर्तन की ओर था | साधू सन्यासियों की संगत इन्हें खूब रास आती थी और कभी अवसर मिलता तो उन्हीं के साथ रहते थे | विद्यालय की शिक्षा इनकी अधूरी ही रही क्योंकि इन्हों इंट्रेंस तक ही पढ़ाई की और फिर पढ़ाई छोड़ दी | धार्मिक प्रवर्तियाँ बढती गई | पड़ोस के गांवों में जहाँ कहीं भी संकीर्तन होता ये वहाँ पहुंच जाते | इनकी सहज धार्मिक प्रवृति और भक्ति से प्रभावित होकर कुछ लोग इनके भक्त बन गये |तब इन्होने इन सबको लेकर अपनी ही संकीर्तन मंडली बना ली | चूँकि शहर में शांति नहीं मिलती इसलिए इन्हें संकीर्तन में असुविधा होती थी | अतः इन लोगों ने आसाम में ही सिलचर से ३ मील दूर बराक नदी के किनारे शहर के कोलाहल से अलग होकर प्रकृति की सुरम्य गोद में एक स्थान को अपनी भजन मण्डली के लिए निश्चित कर लिया | अब सभी लोग जब भी अवसर मिलता यहीं एकत्रित होते और संकीर्तन करते | पौष संक्रांति, दिनांक १३ जनवरी १९०९ को इस सुन्दर एकांत वनस्थली में अरुणाचल मिशन (अरुण का अर्थ होता है सूर्य और अचल का अर्थ होता है जो चलायमान न हो स्थिर हो) की स्थापना की गई | माँ आनंदमयी काली, शंकर भगवान् और श्री अरुणाचलेश्वर महादेव की पत्थर की मूर्तियों की स्थापना और पूजा-अर्चना की गई और मंदिर कू बिना जातिपांति का विचार किये जनता जनार्दन के लिए खोल दिया गया |

ठाकुर दयानन्द का समग्र दृष्टिकोण क्रांतिकारी था | उन्होंने स्त्रियों को पूरी स्वतंत्रता दी और पुरुषों के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर काम करने व संकीर्तन में शामिल होने की पूरी छूट दी | वे पर्दा प्रथा के घोर आलोचक थे | भगिनी निवेदिता को आश्रम की अध्यक्षता सौंपते समय उन्होंने कहा था, “जो मैं आज कर रहा हूँ, वह एक प्रयोग है जिसे कल पूरा विश्व अपनाएगा |” ठाकुर दयानन्द देव ने उस सतयुग के आने कि भविष्यवाणी की जब सभी जीव सर्वशक्तिमान ईश्वर के प्रति समर्पित होंगे, जब मानव की चेतना, उनके समग्र क्रिया-कलाप स्वतः स्फुरित और संचालित होकर स्वर्गीय विभूति की इच्छा की पूर्ति करेंगे | उन्होंने कहा, “मानव जीवन का लक्ष्य क्षणिक आनंद की प्राप्ति नहीं, वरन उस स्वर्गीय विभूति कि अजस्त्र स्नेह-सरिता का रसपान करना है जो अनादी है, अनंत है, अविनाशी है | मनुष्य का समग्र जीवन एक सतत संगीत है, अनंत स्वर्गीय आनंद का संगीत |

Hath Yog

Hatha Yoga is a system of Yoga introduced By Yogi Swatmarama, a sage of 15th century India and compiler of the ‘Hatha Yoga Pradipika (HYP). In this treatise Swatmarama introduces Hatha Yoga as a preparatory stage of physical purification exercises, which the practitioner undergoes for the higher practices and experiences of meditation

PurificationLet us see the meaning of word Hatha, it is made up of Ha + Tha. “Ha” means Pingala Nadi (sun principle) or right nostril and “tha” means Ida nadi, (moon principle) or left nostril. Nadi means psychic passage of energy which can be compared with nerves in physical body. Hatha means balance of Ida and Pingala Nadis, or balancing of mental energy of Ida and Vital / physical energy of Pingala Nadi. Ida Nadi can be compared with Parasympathetic Nervous system and Pingala nadi can be compared with Sympathetic Nervous System. So Hatha Yoga practices results in balancing the entire nervous system resulting in balance of Body and Mind, physical energy and mental energy. The basic purpose of Hatha Yoga is to purify the Ida and Pingala Nadis and then uniting these 2 forces with the third Psychic Nadi Sushumna, which carries Kundalini at Ajna Chakra (eyebrow center).

Hatha Yoga Pradipika starts with the Shatkarmas or cleansing processes, these processes are to remove the blockages in Nadis (psychic / pranic energy channels). A particular disorder or disease is due to blockage in pranic channel supplying vital / bio energy to the particular organ related to disorder. Cleansing techniques removes this energy blocks and the pranic energy starts flowing without hurdles, thus balancing the entire body and mind. The purification is the first in Hatha Yoga, once the body is free of disease, the next step is recommended and that is asanas.

The Rich Yogi and the Poor Yogi

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This is the story of two yogis, one of whom was very wealthy and the other living a very meager existence.  They had grown up together, had very similar spiritual training and when later in life they became gurus, their ashrams were located close by to one another.

The ashram of the rich yogi was quite decadent compared to your normal ashram setting.  The structures were all made of the finest materials with marble carving and colorful fabrics lining the hallways.  The food was always elegantly presented and there were often banquets and celebrations during the various festival times of the year.

The ashram on the strict yogi was run quite differently without even the smallest of luxuries.  This yogi was philosophically opposed to the kind of life style that the other yogi’s ashram entailed and he was always cautioning his disciples against such kinds of actions.  “Look at the way they go to excess!” he would preach.  “These are the evils of attachment my children.  There is no road to enlightenment with the kind of golden shackles they’re carrying around their ankles.”  In his mind there was no comparison between the life his ashram was encouraging and the misguided ways of the rich yogi and his wealthy surroundings.

The rich yogi knew how the other yogi felt about their different ashrams, but despite their divergence where this matter was concerned, they stayed on friendly terms throughout their lives and would meet on a regular basis.

One such day, they met on the road in between their two residences.  Seeing his wealthy friend approach, the strict yogi got the idea to give his rich friend a bit of a test.  After their greeting he turned to the rich yogi and said, “You know, I’ve been meaning to ask you, how would you feel about just heading off on a pilgrimage to all the important sites of India.  I don’t know how long it will take, years maybe. But if we’re truly dedicated, why not leave our homes and set out?”  Sure that his friend would never dream of leaving his lush surroundings, the strict yogi was surprised when his friend answered, “Ok. Why not?  Let’s go.” Feeling that perhaps the wealthy yogi was just bluffing, the strict yogi continued, “Ok, then. Let’s leave right now.”  To his surprise, the rich yogi answered calmly, “Why not? I’m ready. Let’s go now.”  The strict yogi was a bit caught off guard by the other yogi’s reaction but was still sure that before they got too far, the friend would surely realize all the things he was giving up and would change his mind, proving his worldly attachments.

They walked for a little while, mostly in silence when the strict yogi, thinking of something turned to his companion and said, “Wait right here, I’ll be right back.”  The rich yogi waited there by the side of the road until a quarter of an hour or so later, the strict yogi returned carrying his copper pot and his yogic stick.

The rich yogi turned to his strict minded friend and with a smile on his face said, “That, my friend, is attachment.”

We should become like the lotus petals.  Although they are constantly in the water, the droplets slide just as easily off of their petals.  Detachment occurs on the mental level and it doesn’t matter what possessions you may or may not have.  Make it all equal in your mind so that loss will not cause you sadness and gain will not be the source of your happiness.

Compiled by –

Gandhar Mandlik (Rishi Dharmachandra)

Courtesy: Yoga Point