"एक महत चेतना की सशक्त धारा आ रही है, जिसके प्रवाह में राष्ट्रों की पूर्वाग्रहों और संकीर्णताओं की दीवारें चूर चूर हो जायेंगी और तब विश्व के समस्त राष्ट्र प्रेम का महोत्सव मनाएंगे|"- ठाकुर दयानंद देव

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क्या नैतिकता की परिभाषा बदल गई है ?

मुझसे कहा जाता है कि मैं शिष्य धर्म, सन्यास धर्म व आश्रम के नियमों का उल्लंघन कर रहा हूँ |ethics-large.thumbnail

नियम १. गुरु चाहे जैसा भी हो उसकी निंदा नहीं करनी चाहिए |

लेकिन यही नियम गुरु पर लागू नहीं होता कि शिष्य की निंदा नहीं करनी चाहिए |

नियम २. सन्यासी का काम है भजन कीर्तन करना, न कि आश्रम प्रमुखों की लापरवाहियों व अय्याशियों का विरोध करना |

लेकिन यही बात आश्रम प्रमुखों पर लागू नहीं होती कि सन्यासी यदि प्रमुखों के इच्छानुसार न चलें तो उसका विरोध न करें |

नियम ३. आश्रम की घटनाओं को मीडिया में उछालना सन्यासी का काम नहीं है |

यही बात आश्रम प्रमुखों पर लागू नहीं होती जब दान-धर्म का दिखावा करते समय मिडिया बुलाया जाता है |

नैतिकता केवल उनपर लागू होती है जो नए होते हैं, लेकिन वही बात सीनिअर्स पर लागू नहीं होती | उन्हें आश्रम में रहने का अधिकार नहीं है जो आश्रम की बातें बाहर बताते हैं, लेकिन उन्हें अधिकार है जो आश्रम के नाम पर धन कमाते हैं और अपने अपने बुढ़ापे का इंतजाम करते हैं | सिखाया जाता है कि धन-संपत्ति का लोभ ईश्वर प्राप्ति के मार्ग में बाधा है, सभी मठाधीशों का सारा झगडा धन-संपत्ति व पद प्रतिष्ठा के लिए ही होता है | अभी तक जितने भी आश्रमों में गया, सभी में लोगों को पद और अधिकारों के लिए लड़ते देखा | कोई संत यदि ईश्वर प्राप्ति के लिए केवल ध्यान भजन करता मिला भी कहीं, तो केवल इसलिए कि वह कमजोर था और जैसे तैसे अपनी ज़िन्दगी काटना चाहता था | दो वक्त की रोटी मिलती रहे इसलिए भजन कीर्तन कर रहा था या प्रमुखों की सेवा कर रहा था |

मैं नहीं जानता कि नैतिकता की परिभाषा कब बदल गई, लेकिन मेरे लिए नैतिकता की परिभाषा वही है जो पहले थी | केवल मैंने उसमें संशोधन इतना ही किया है कि नैतिकता सबके लिए सामान होना चाहिए और नैतिकता के नाम पर जहाँ कहीं भी शोषण या भ्रष्टाचार होगा, मुझे उसका विरोध करना है | चाहे परिणाम कुछ भी हो | वैसे भी मैं कौन सा इस आश्रम या इस दुनिया में हमेशा रहने के लिए आया हूँ ? जब मेरा काम पूरा हो जाएगा तो आश्रम तो क्या शरीर भी यहीं छोड़ जाऊँगा | लेकिन जाने से पहले इतना अवश्य चाहता हूँ कि सदियों से सन्यास और धर्म के नाम पर चल रहे पाखण्ड को समाप्त करने की उन प्रयासों को कुछ और आगे तो बढ़ा पाऊं, जो इस पृथ्वी पर आये शुभ आत्माओं ने किये थे | -विशुद्ध चैतन्य

समाज कहता है, पुजा करना धर्म है, टीका लगाना धर्म है, धर्म जैसे कोई मिलिट्री कि कवायद है…

“समाज के ढांचे में ढाला गया व्यक्ति आध्यात्मिक तो हो ही नहीं पाता, पाखंडी हो जाता है, हिपोक्रेट हो जाता है ! क्योंकि उसे हम जो बनाने कि कोशिश करते है वह बन नहीं पाता, फिर वह क्या करें ? फिर वह धोखा देना शुरू करता है कि मैं बन गया हूं ! भीतर से वह जानता है कि मैं नहीं बना हूं! भीतर से अपराध अनुभव करता है! लेकिन जीने के लिए चेहरे बनाने फिर जरुरी हो जाते है! वह कहता है, मैं बन गया हूं! भीतर रहता है अशांत, भीतर रहता है पाप और अपराध से घिरा हुआ, और जाकर मंदिर में पूजा करता है! जब वह पूजा करता है, अगर कोई उसके प्राणो में झांक सके, तो पूजा को छोड़ कर उसके प्राणो में सब कुछ हो सकता है पूजा उसके प्राणो में बिलकुल नहीं हो सकती!
लेकिन सोशल कनफरमिटी, समाज कहता है, पुजा करना धर्म है, टीका लगाना धर्म है, धर्म जैसे कोई मिलिट्री कि कवायद है कि आप इस-इस तरह का काम कर लें तो आप धार्मिक हो जाएंगे ! धर्म के नाम पर समाज ने एक व्यवस्था बनाई हुई है ! उसके अनुकूल आप हो जाएं, आप धार्मिक हो गए ! जब कि आध्यात्मिक होने का मतलब ही यह है कि आपकी जो व्यक्तिगत चेतना है उसकी फलावरिंग हो, आपका जो व्यक्तिगत चेतना का फूल है वह खिले ! और आप जैसा आदमी इस दुनिया में कभी नहीं हुआ ! न राम आप जैसे थे, न बुद्ध आप जैसे, न महावीर आप जैसे !” —ओशो (भारत: समस्याएं व् समाधान)

ओशो की बातें मेरे आश्रम में चरितार्थ होती हैं | यहाँ कर्मकांड को महत्व दिया जाता है मानवीयता उपेक्षित रहता है | यहाँ कुछ लोगों को यह भ्रम है कि आश्रम के साधू सन्यासी उनके सेवक हैं | वे अपनी छुट्टियाँ बिताने आश्रम में आते हैं और हज़ार पांच सौ का टिप (दान) देकर एहसान जताते हैं सो अलग |

जिस संत ने अपना सुख चैन छोड़ कर संकीर्तन को माध्यम बना कर शहर शहर, गाँव गाँव लोगों को जागृत करने का अभियान चलाया, अंग्रेजी शासन का बहिष्कार किया और विश्व को एक सूत्र में बाँधने के लिए UN जैसी IMG-20130521-00053संस्था की परिकल्पना की, उसे ही आज उनके शिष्यों ने हाशिये में लाकर रख दिया | आज बहुत ही कम लोग हैं जो उनके विषय में जानते हैं | जो जानते हैं, वे भी केवल अपने स्वार्थ के लिए |

उदाहरण के लिए अरुणाचल मिशन के चेयरपर्सन यहाँ आयी हुई हैं माँ काली की पूजा करवाने | लेकिन मुझे बहुत आश्चर्य हुआ कि जब से आयी हैं एक बार भी किसी ने भूमिविवाद पर कोई बात नहीं किया और न ही बात हुई आश्रम के विकास या उत्थान से सम्बंधित किसी विषय पर | उस पंडा परिमल बनर्जी को पूजा के लिए आमंत्रित किया गया, जो यहाँ हमें धमकी देकर गया था | यह जानते हुए भी कि हम इसका समर्थन नहीं करेंगे |

मुझे जब पता चला कि उनको आश्रम या आश्रम के सन्यासियों की मान-सम्मान की कोई चिंता नहीं है और केवल अपनी पूजा और श्रद्धा के ढोंग और दिखावा को ही महत्व दे रहें हैं, तो मैंने उन लोगों की शक्ल देखने से भी इनकार कर दिया | मैं अपने फ्लोर से नीचे ही नहीं उतरा यहाँ तक कि खाने के लिए | विवश होकर उन्हें चाय-नाश्ता व खाना मेरे कमरे में ही भिजवाना पड़ा | कल शाम को चेयरपर्सन ने मुझे अपने कमरे में बुलवाया | जब में वहाँ पहुँचा तो देखा कई लोग बैठे हुए थे और शिव महाराज अपनी बात रख रख रहे थे कि परिमल को पूजा पर नहीं बुलाना चाहिए और पूजा वे स्वयं कर लेंगे… लेकिन वे लोग इस बात से सहमत नहीं थे और उनका कहना था कि ईगो को पूजा से सम्बंधित विषय पर बीच में नहीं लाना चाहिए | और फिर सन्यासियों को ऐसी बातें शोभा नहीं देती….

खैर उन्होंने मुझे बोलने का अवसर दिया और कहा कि आप आश्रम के सन्यासी होते हुए भी किसी से मिलने नहीं आये और न ही किसी से बात की, इसलिए आपको मैंने बुलाया था | ताकि आपकी शक्ल देख लें और आपके विचार भी समझ लें | मैंने कहा कि मैं केवल आश्रम के सम्बन्ध में ही बात करना चाहता था और जब पता चला कि आप लोगों कि आश्रम में कोई रूचि नहीं है और केवल पूजा के लिए ही आये हैं, तो फिर मेरा आप लोगों से मिलने का कोई कारण नहीं था इसलिए मैं नहीं आया | उन्होंने कहा कि आप अपनी राय रखिये कि परिमल को क्यों न बुलाया जाये ? मैंने उनसे कहा कि यदि परिमल को आप बुलाते हैं तो गाँव में नकारात्मक सन्देश जाएगा | लेकिन उन्होंने कहा कि वे परिमल को एक पुजारी के रूप में आमंत्रित कर रहें है और उससे कुछ नहीं बिगड़ने वाला | मैंने और भी कई बातों पर प्रकाश डालने की कोशिश की तो उनका कहना था कि वे इन सारे विषयों से अनजान थे इसलिए वे कोई कदम नहीं उठा पाए | लेकिन मैं एक बात जो समझ पाया कि वे आश्रम के विषय में उदास हैं और जैसे तैसे अपनी पूजा की रस्म निभा कर यहाँ से जाना चाहते हैं | फिर चेयरपर्सन ने अध्यक्ष के पास चलने को कहा क्योंकि वे चाहतीं थीं कि बातें उन्हीं के सामने हों |

हम सभी अध्यक्ष के कमरे में गए लेकिन लगभग एक घंटे की बहस के बाद भी कोई परिणाम नहीं निकला और मैं अपने कमरे में चला आया यह कहकर कि आप लोगों को यदि आश्रम का विकास या उत्थान करना है तो उस पर सही नीति पर काम शुरू कीजिये | अन्यथा इस आश्रम का नामो-निशान मिट जाएगा |
एक बात और जो सामने निकल कर आयी कि त्रिकुट आश्रम भी चेयरपर्सन केवल इसलिए छोड़ना चाहती हैं कि उसका अध्यक्ष स्वामी चन्दन बहुत ही दबंग बदमाश है और उससे उलझने से अशांति ही होगी | इनका यही डर भूमाफियाओं का साहस बढ़ा रहा है | मैंने सोचा था कि चेयरपर्सन कोई समझदार लेडी होंगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ | उन्होंने सारी बातें कायरों और मूर्खो वाली कहीं | जैसे कि आश्रम में आदमियों कि कमी है इसलिए कुछ नहीं हो सकता… हमारा काम है संकीर्तन करना और ठाकुर हमारी रक्षा करेंगे…

अब यदि संकीर्तन करने से  ही भूमि बच सकती, तो एक एक कर अरुणाचल मिशन के सारे आश्रम क्यों दबंग हथियाते जा रहें हैं ? क्यों आश्रम में कोई सन्यासी टिक नहीं पा रहा ? क्यों ठाकुर दयानंद का मिशन व स्वप्न आश्रम के ट्रस्टियों को ही याद नहीं ? क्यों ये लोग आश्रम को अपना निजी फार्महाउस मान कर चल रहें हैं और हमें मूर्ख बना रहें हैं भजन कीर्तन के नाम पर ?

ट्रस्टी की भूमिका संरक्षक की होती है, लेकिन इनको संरक्षक का अर्थ पता नहीं है शायद | भूमिविवाद को सुलझाने में इनकी अरुचि संशय उपन्न करती है | मिशन के उद्देश्य का तो ये लोग पहले ही चिता जला चुके हैं और ठाकुर दयानंद के स्वप्न की समाधि बना चुके इस लीलामंदिर आश्रम नाम के समाधिस्थल को भी अब भूमाफियाओं के भरोसे छोड़ कर यह आशा कर रहें हैं कि “जय जय दयानंद, प्राण गौर नित्यानंद” करने और उनकी प्रतिमा को भोग लगाने से ठाकुर जी प्रसन्न हो जायेंगे | मुझे लगता है ऐसे अकर्मण्य ट्रस्टी न केवल आश्रम को क्षति पहुँचा रहें है, भारतीय संस्कृति व परम्परा को भी मिटाने में मुख्य भूमिका निभा रहें हैं | इनके बच्चे कान्वेंट में पढ़ते हैं, अंग्रेजी और अंग्रेजों को अपना आदर्श मानते हैं तो कैसे इनसे आशा की जाये कि ये भारतीय संस्कृति को समझ पायेंगे या आश्रम के उत्थान में कोई योगदान दे पायेंगे ? ये अंग्रेजों का प्रचार करेंगे और अपने को धन्य मानेंगे | इनको यही नहीं पता कि सन्यासी और पुरोहित में क्या अंतर होता है, तो इनसे और क्या अपेक्षा की जा सकती है ? –विशुद्ध चैतन्य

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