"एक महत चेतना की सशक्त धारा आ रही है, जिसके प्रवाह में राष्ट्रों की पूर्वाग्रहों और संकीर्णताओं की दीवारें चूर चूर हो जायेंगी और तब विश्व के समस्त राष्ट्र प्रेम का महोत्सव मनाएंगे|"- ठाकुर दयानंद देव

Archive for the ‘Arunachal Mission’ Category

क्या नैतिकता की परिभाषा बदल गई है ?

मुझसे कहा जाता है कि मैं शिष्य धर्म, सन्यास धर्म व आश्रम के नियमों का उल्लंघन कर रहा हूँ |ethics-large.thumbnail

नियम १. गुरु चाहे जैसा भी हो उसकी निंदा नहीं करनी चाहिए |

लेकिन यही नियम गुरु पर लागू नहीं होता कि शिष्य की निंदा नहीं करनी चाहिए |

नियम २. सन्यासी का काम है भजन कीर्तन करना, न कि आश्रम प्रमुखों की लापरवाहियों व अय्याशियों का विरोध करना |

लेकिन यही बात आश्रम प्रमुखों पर लागू नहीं होती कि सन्यासी यदि प्रमुखों के इच्छानुसार न चलें तो उसका विरोध न करें |

नियम ३. आश्रम की घटनाओं को मीडिया में उछालना सन्यासी का काम नहीं है |

यही बात आश्रम प्रमुखों पर लागू नहीं होती जब दान-धर्म का दिखावा करते समय मिडिया बुलाया जाता है |

नैतिकता केवल उनपर लागू होती है जो नए होते हैं, लेकिन वही बात सीनिअर्स पर लागू नहीं होती | उन्हें आश्रम में रहने का अधिकार नहीं है जो आश्रम की बातें बाहर बताते हैं, लेकिन उन्हें अधिकार है जो आश्रम के नाम पर धन कमाते हैं और अपने अपने बुढ़ापे का इंतजाम करते हैं | सिखाया जाता है कि धन-संपत्ति का लोभ ईश्वर प्राप्ति के मार्ग में बाधा है, सभी मठाधीशों का सारा झगडा धन-संपत्ति व पद प्रतिष्ठा के लिए ही होता है | अभी तक जितने भी आश्रमों में गया, सभी में लोगों को पद और अधिकारों के लिए लड़ते देखा | कोई संत यदि ईश्वर प्राप्ति के लिए केवल ध्यान भजन करता मिला भी कहीं, तो केवल इसलिए कि वह कमजोर था और जैसे तैसे अपनी ज़िन्दगी काटना चाहता था | दो वक्त की रोटी मिलती रहे इसलिए भजन कीर्तन कर रहा था या प्रमुखों की सेवा कर रहा था |

मैं नहीं जानता कि नैतिकता की परिभाषा कब बदल गई, लेकिन मेरे लिए नैतिकता की परिभाषा वही है जो पहले थी | केवल मैंने उसमें संशोधन इतना ही किया है कि नैतिकता सबके लिए सामान होना चाहिए और नैतिकता के नाम पर जहाँ कहीं भी शोषण या भ्रष्टाचार होगा, मुझे उसका विरोध करना है | चाहे परिणाम कुछ भी हो | वैसे भी मैं कौन सा इस आश्रम या इस दुनिया में हमेशा रहने के लिए आया हूँ ? जब मेरा काम पूरा हो जाएगा तो आश्रम तो क्या शरीर भी यहीं छोड़ जाऊँगा | लेकिन जाने से पहले इतना अवश्य चाहता हूँ कि सदियों से सन्यास और धर्म के नाम पर चल रहे पाखण्ड को समाप्त करने की उन प्रयासों को कुछ और आगे तो बढ़ा पाऊं, जो इस पृथ्वी पर आये शुभ आत्माओं ने किये थे | -विशुद्ध चैतन्य

समाज कहता है, पुजा करना धर्म है, टीका लगाना धर्म है, धर्म जैसे कोई मिलिट्री कि कवायद है…

“समाज के ढांचे में ढाला गया व्यक्ति आध्यात्मिक तो हो ही नहीं पाता, पाखंडी हो जाता है, हिपोक्रेट हो जाता है ! क्योंकि उसे हम जो बनाने कि कोशिश करते है वह बन नहीं पाता, फिर वह क्या करें ? फिर वह धोखा देना शुरू करता है कि मैं बन गया हूं ! भीतर से वह जानता है कि मैं नहीं बना हूं! भीतर से अपराध अनुभव करता है! लेकिन जीने के लिए चेहरे बनाने फिर जरुरी हो जाते है! वह कहता है, मैं बन गया हूं! भीतर रहता है अशांत, भीतर रहता है पाप और अपराध से घिरा हुआ, और जाकर मंदिर में पूजा करता है! जब वह पूजा करता है, अगर कोई उसके प्राणो में झांक सके, तो पूजा को छोड़ कर उसके प्राणो में सब कुछ हो सकता है पूजा उसके प्राणो में बिलकुल नहीं हो सकती!
लेकिन सोशल कनफरमिटी, समाज कहता है, पुजा करना धर्म है, टीका लगाना धर्म है, धर्म जैसे कोई मिलिट्री कि कवायद है कि आप इस-इस तरह का काम कर लें तो आप धार्मिक हो जाएंगे ! धर्म के नाम पर समाज ने एक व्यवस्था बनाई हुई है ! उसके अनुकूल आप हो जाएं, आप धार्मिक हो गए ! जब कि आध्यात्मिक होने का मतलब ही यह है कि आपकी जो व्यक्तिगत चेतना है उसकी फलावरिंग हो, आपका जो व्यक्तिगत चेतना का फूल है वह खिले ! और आप जैसा आदमी इस दुनिया में कभी नहीं हुआ ! न राम आप जैसे थे, न बुद्ध आप जैसे, न महावीर आप जैसे !” —ओशो (भारत: समस्याएं व् समाधान)

ओशो की बातें मेरे आश्रम में चरितार्थ होती हैं | यहाँ कर्मकांड को महत्व दिया जाता है मानवीयता उपेक्षित रहता है | यहाँ कुछ लोगों को यह भ्रम है कि आश्रम के साधू सन्यासी उनके सेवक हैं | वे अपनी छुट्टियाँ बिताने आश्रम में आते हैं और हज़ार पांच सौ का टिप (दान) देकर एहसान जताते हैं सो अलग |

जिस संत ने अपना सुख चैन छोड़ कर संकीर्तन को माध्यम बना कर शहर शहर, गाँव गाँव लोगों को जागृत करने का अभियान चलाया, अंग्रेजी शासन का बहिष्कार किया और विश्व को एक सूत्र में बाँधने के लिए UN जैसी IMG-20130521-00053संस्था की परिकल्पना की, उसे ही आज उनके शिष्यों ने हाशिये में लाकर रख दिया | आज बहुत ही कम लोग हैं जो उनके विषय में जानते हैं | जो जानते हैं, वे भी केवल अपने स्वार्थ के लिए |

उदाहरण के लिए अरुणाचल मिशन के चेयरपर्सन यहाँ आयी हुई हैं माँ काली की पूजा करवाने | लेकिन मुझे बहुत आश्चर्य हुआ कि जब से आयी हैं एक बार भी किसी ने भूमिविवाद पर कोई बात नहीं किया और न ही बात हुई आश्रम के विकास या उत्थान से सम्बंधित किसी विषय पर | उस पंडा परिमल बनर्जी को पूजा के लिए आमंत्रित किया गया, जो यहाँ हमें धमकी देकर गया था | यह जानते हुए भी कि हम इसका समर्थन नहीं करेंगे |

मुझे जब पता चला कि उनको आश्रम या आश्रम के सन्यासियों की मान-सम्मान की कोई चिंता नहीं है और केवल अपनी पूजा और श्रद्धा के ढोंग और दिखावा को ही महत्व दे रहें हैं, तो मैंने उन लोगों की शक्ल देखने से भी इनकार कर दिया | मैं अपने फ्लोर से नीचे ही नहीं उतरा यहाँ तक कि खाने के लिए | विवश होकर उन्हें चाय-नाश्ता व खाना मेरे कमरे में ही भिजवाना पड़ा | कल शाम को चेयरपर्सन ने मुझे अपने कमरे में बुलवाया | जब में वहाँ पहुँचा तो देखा कई लोग बैठे हुए थे और शिव महाराज अपनी बात रख रख रहे थे कि परिमल को पूजा पर नहीं बुलाना चाहिए और पूजा वे स्वयं कर लेंगे… लेकिन वे लोग इस बात से सहमत नहीं थे और उनका कहना था कि ईगो को पूजा से सम्बंधित विषय पर बीच में नहीं लाना चाहिए | और फिर सन्यासियों को ऐसी बातें शोभा नहीं देती….

खैर उन्होंने मुझे बोलने का अवसर दिया और कहा कि आप आश्रम के सन्यासी होते हुए भी किसी से मिलने नहीं आये और न ही किसी से बात की, इसलिए आपको मैंने बुलाया था | ताकि आपकी शक्ल देख लें और आपके विचार भी समझ लें | मैंने कहा कि मैं केवल आश्रम के सम्बन्ध में ही बात करना चाहता था और जब पता चला कि आप लोगों कि आश्रम में कोई रूचि नहीं है और केवल पूजा के लिए ही आये हैं, तो फिर मेरा आप लोगों से मिलने का कोई कारण नहीं था इसलिए मैं नहीं आया | उन्होंने कहा कि आप अपनी राय रखिये कि परिमल को क्यों न बुलाया जाये ? मैंने उनसे कहा कि यदि परिमल को आप बुलाते हैं तो गाँव में नकारात्मक सन्देश जाएगा | लेकिन उन्होंने कहा कि वे परिमल को एक पुजारी के रूप में आमंत्रित कर रहें है और उससे कुछ नहीं बिगड़ने वाला | मैंने और भी कई बातों पर प्रकाश डालने की कोशिश की तो उनका कहना था कि वे इन सारे विषयों से अनजान थे इसलिए वे कोई कदम नहीं उठा पाए | लेकिन मैं एक बात जो समझ पाया कि वे आश्रम के विषय में उदास हैं और जैसे तैसे अपनी पूजा की रस्म निभा कर यहाँ से जाना चाहते हैं | फिर चेयरपर्सन ने अध्यक्ष के पास चलने को कहा क्योंकि वे चाहतीं थीं कि बातें उन्हीं के सामने हों |

हम सभी अध्यक्ष के कमरे में गए लेकिन लगभग एक घंटे की बहस के बाद भी कोई परिणाम नहीं निकला और मैं अपने कमरे में चला आया यह कहकर कि आप लोगों को यदि आश्रम का विकास या उत्थान करना है तो उस पर सही नीति पर काम शुरू कीजिये | अन्यथा इस आश्रम का नामो-निशान मिट जाएगा |
एक बात और जो सामने निकल कर आयी कि त्रिकुट आश्रम भी चेयरपर्सन केवल इसलिए छोड़ना चाहती हैं कि उसका अध्यक्ष स्वामी चन्दन बहुत ही दबंग बदमाश है और उससे उलझने से अशांति ही होगी | इनका यही डर भूमाफियाओं का साहस बढ़ा रहा है | मैंने सोचा था कि चेयरपर्सन कोई समझदार लेडी होंगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ | उन्होंने सारी बातें कायरों और मूर्खो वाली कहीं | जैसे कि आश्रम में आदमियों कि कमी है इसलिए कुछ नहीं हो सकता… हमारा काम है संकीर्तन करना और ठाकुर हमारी रक्षा करेंगे…

अब यदि संकीर्तन करने से  ही भूमि बच सकती, तो एक एक कर अरुणाचल मिशन के सारे आश्रम क्यों दबंग हथियाते जा रहें हैं ? क्यों आश्रम में कोई सन्यासी टिक नहीं पा रहा ? क्यों ठाकुर दयानंद का मिशन व स्वप्न आश्रम के ट्रस्टियों को ही याद नहीं ? क्यों ये लोग आश्रम को अपना निजी फार्महाउस मान कर चल रहें हैं और हमें मूर्ख बना रहें हैं भजन कीर्तन के नाम पर ?

ट्रस्टी की भूमिका संरक्षक की होती है, लेकिन इनको संरक्षक का अर्थ पता नहीं है शायद | भूमिविवाद को सुलझाने में इनकी अरुचि संशय उपन्न करती है | मिशन के उद्देश्य का तो ये लोग पहले ही चिता जला चुके हैं और ठाकुर दयानंद के स्वप्न की समाधि बना चुके इस लीलामंदिर आश्रम नाम के समाधिस्थल को भी अब भूमाफियाओं के भरोसे छोड़ कर यह आशा कर रहें हैं कि “जय जय दयानंद, प्राण गौर नित्यानंद” करने और उनकी प्रतिमा को भोग लगाने से ठाकुर जी प्रसन्न हो जायेंगे | मुझे लगता है ऐसे अकर्मण्य ट्रस्टी न केवल आश्रम को क्षति पहुँचा रहें है, भारतीय संस्कृति व परम्परा को भी मिटाने में मुख्य भूमिका निभा रहें हैं | इनके बच्चे कान्वेंट में पढ़ते हैं, अंग्रेजी और अंग्रेजों को अपना आदर्श मानते हैं तो कैसे इनसे आशा की जाये कि ये भारतीय संस्कृति को समझ पायेंगे या आश्रम के उत्थान में कोई योगदान दे पायेंगे ? ये अंग्रेजों का प्रचार करेंगे और अपने को धन्य मानेंगे | इनको यही नहीं पता कि सन्यासी और पुरोहित में क्या अंतर होता है, तो इनसे और क्या अपेक्षा की जा सकती है ? –विशुद्ध चैतन्य

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” ढोल, गंवार , शूद्र ,पशु ,नारी सकल ताड़ना के अधिकारी “” का सही अर्थ क्या है….?????

 

  • क्या आप जानते हैं कि रामचरित मानस के सुन्दरकांड में उल्लिखित “” ढोल, गंवार , शूद्र ,पशु ,नारी सकल ताड़ना के अधिकारी “” का सही अर्थ क्या है….?????ram-darbar

    दरअसल…. कुछ लोग इस चौपाई का अपनी बुद्धि और अतिज्ञान के अनुसार ….. विपरीत अर्थ निकालकर तुलसी दास जी और रामचरित मानस पर आक्षेप लगाते हुए अक्सर दिख जाते है….!

    यह बेहद ही सामान्य समझ की बात है कि….. अगर तुलसी दास जी स्त्रियो से द्वेष या घृणा करते तो…….

    रामचरित मानस में उन्होने स्त्री को देवी समान क्यो बताया…?????

    और तो और…. तुलसीदास जी ने तो …

    “एक नारिब्रतरत सब झारी। ते मन बच क्रम पतिहितकारी।“
    अर्थात, पुरुष के विशेषाधिकारों को न मानकर……… दोनों को समान रूप से एक ही व्रत पालने का आदेश दिया है।

    साथ ही …..सीता जी की परम आदर्शवादी महिला एवं उनकी नैतिकता का चित्रण….उर्मिला के विरह और त्याग का चित्रण……. यहाँ तक कि…. लंका से मंदोदरी और त्रिजटा का चित्रण भी सकारात्मक ही है ….!

    सिर्फ इतना ही नहीं….. सुरसा जैसी राक्षसी को भी हनुमान द्वारा माता कहना…….. कैकेई और मंथरा भी तब सहानुभूति का पात्र हो जाती हैं….. जब, उन्हे अपनी ग़लती का पश्चाताप होता है ।

    ऐसे में तुलसीदास जी के शब्द का अर्थ……… स्त्री को पीटना अथवा प्रताड़ित करना है……..आसानी से हजम नहीं होता…..!

    साथ ही … इस बात का भी ध्यान रखना आवश्यक है कि…. तुलसी दास जी…… शूद्रो के विषय मे तो कदापि ऐसा लिख ही नहीं सकते क्योंकि…. उनके प्रिय राम द्वारा शबरी…..विषाद….केवट आदि से मिलन के जो उदाहरण है…… वो तो और कुछ ही दर्शाते है ……!

    तुलसी दास जीने मानस की रचना अवधी में की है और प्रचलित शब्द ज़्यादा आए हैं, इसलिए “ताड़न” शब्द को संस्कृत से ही जोड़कर नहीं देखा जा सकता…..!

    फिर, यह प्रश्न बहुत स्वाभिविक सा है कि…. आखिर इसका भावार्थ है क्या….?????

    इसे ठीक से समझाने के लिए…… मैं आप लोगों को एक “”” शब्दों के हेर-फेर से….. वाक्य के भावार्थ बदल जाने का एक उदाहरण देना चाहूँगा …..

    मान ले कि ……

    एक वाक्य है…… “”” बच्चों को कमरे में बंद रखा गया है “”

    दूसरा वाक्य …. “” बच्चों को कमरे में बन्दर खा गया है “”

    हालाँकि…. दोनों वाक्यों में … अक्षर हुबहू वही हैं….. लेकिन…. दोनों वाक्यों के भावार्थ पूरी तरह बदल चुके हैं…!

    ठीक ऐसा ही रामचरित मानस की इस चौपाई के साथ हुआ है…..

    यह ध्यान योग्य बात है कि…. क्षुद्र मानसिकता से ग्रस्त ऐसे लोगो को…….. निंदा के लिए ऐसी पंक्तियाँ दिख जाती है …. परन्तु उन्हें यह नहीं दिखता है कि ….. राजा दशरथ ने स्त्री के वचनो के कारण ही तो अपने प्राण दे दिये….

    और श्री राम ने स्त्री की रक्षा के लिए रावण से युद्ध किया ….

    साथ ही ….रामायण के प्रत्येक पात्र द्वारा…. पूरी रामायण मे स्त्रियो का सम्मान किया गया और उन्हें देवी बताया गया ..!

    असल में ये चौपाइयां उस समय कही गई है जब … समुन्द्र द्वारा श्री राम की विनय स्वीकार न करने पर जब श्री राम क्रोधित हो गए…….. और अपने तरकश से बाण निकाला …!

    तब समुद्र देव …. श्री राम के चरणो मे आए…. और, श्री राम से क्षमा मांगते हुये अनुनय करते हुए कहने लगे कि….

    – हे प्रभु – आपने अच्छा किया जो मुझे शिक्षा दी….. और ये ये लोग विशेष ध्यान रखने यानि …..शिक्षा देने के योग्य होते है …. !

    दरअसल….. ताड़ना एक अवधी शब्द है……. जिसका अर्थ …. पहचानना .. परखना या रेकी करना होता है…..!

    तुलसीदास जी… के कहने का मंतव्य यह है कि….. अगर हम ढोल के व्यवहार (सुर) को नहीं पहचानते ….तो, उसे बजाते समय उसकी आवाज कर्कश होगी …..अतः उससे स्वभाव को जानना आवश्यक है ।

    इसी तरह गंवार का अर्थ …..किसी का मजाक उड़ाना नहीं …..बल्कि, उनसे है जो अज्ञानी हैं… और प्रकृति या व्यवहार को जाने बिना उसके साथ जीवन सही से नहीं बिताया जा सकता …..।

    इसी तरह पशु और नारी के परिप्रेक्ष में भी वही अर्थ है कि….. जब तक हम नारी के स्वभाव को नहीं पहचानते ….. उसके साथ जीवन का निर्वाह अच्छी तरह और सुखपूर्वक नहीं हो सकता…।

    इसका सीधा सा भावार्थ यह है कि….. ढोल, गंवार, शूद्र, पशु …. और नारी…. के व्यवहार को ठीक से समझना चाहिए …. और उनके किसी भी बात का बुरा नहीं मानना चाहिए….!

    और तुलसीदास जी के इस चौपाई को लोग अपने जीवन में भी उतारते हैं……. परन्तु…. रामचरित मानस को नहीं समझ पाते हैं….

    जैसे कि… यह सर्व विदित कि …..जब गाय, भैंस, बकरी आदि पशुओं का दूध दूहा जाता है.. तो, दूध दूहते समय यदि उसे किसी प्रकार का कष्ट हो रहा है ….अथवा वह शारीरिक रूप से दूध देने की स्थिति में नहीं है …तो वह लात भी मार देते है…. जिसका कभी लोग बुरा नहीं मानते हैं….!

    सुन्दर कांड की पूरी चौपाई कुछ इस तरह की है…..

    प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्हीं।
    मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्हीं॥

    ढोल, गंवार, शुद्र, पशु , नारी ।
    सकल ताड़ना के अधिकारी॥3॥

    भावार्थ:-प्रभु ने अच्छा किया जो मुझे शिक्षा दी.. और, सही रास्ता दिखाया ….. किंतु मर्यादा (जीवों का स्वभाव) भी आपकी ही बनाई हुई है…!

    क्योंकि…. ढोल, गँवार, शूद्र, पशु और स्त्री…….. ये सब शिक्षा तथा सही ज्ञान के अधिकारी हैं ॥3॥

    अर्थात…. ढोल (एक साज), गंवार(मूर्ख), शूद्र (कर्मचारी), पशु (चाहे जंगली हो या पालतू) और नारी (स्त्री/पत्नी), इन सब को साधना अथवा सिखाना पड़ता है.. और निर्देशित करना पड़ता है…. तथा विशेष ध्यान रखना पड़ता है ॥

    इसीलिए….

    बिना सोचे-समझे आरोप पर उतारू होना …..मूर्खो का ही कार्य है… और मेरे ख्याल से तो….ऐसे लोग भी इस चौपायी के अनुसार….. विशेष साधने तथा शिक्षा देने योग्य ही है …..

    जय महाकाल…!!!

    आपकी जानकारी हेतु घटना – संवाद का सम्पूर्ण सन्दर्भ यहाँ दे रहा हूँ ।

    बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति।
    बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति॥57॥

    भावार्थ:-इधर तीन दिन बीत गए, किंतु जड़ समुद्र विनय नहीं मानता। तब श्री रामजी क्रोध सहित बोले- बिना भय के प्रीति नहीं होती!॥57॥

    चौपाई :
    * लछिमन बान सरासन आनू। सोषौं बारिधि बिसिख कृसानु॥
    सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीति। सहज कृपन सन सुंदर नीति॥1॥

    भावार्थ:-हे लक्ष्मण! धनुष-बाण लाओ, मैं अग्निबाण से समुद्र को सोख डालूँ। मूर्ख से विनय, कुटिल के साथ प्रीति, स्वाभाविक ही कंजूस से सुंदर नीति (उदारता का उपदेश),॥1॥

    * ममता रत सन ग्यान कहानी। अति लोभी सन बिरति बखानी॥
    क्रोधिहि सम कामिहि हरिकथा। ऊसर बीज बएँ फल जथा॥2॥

    भावार्थ:-ममता में फँसे हुए मनुष्य से ज्ञान की कथा, अत्यंत लोभी से वैराग्य का वर्णन, क्रोधी से शम (शांति) की बात और कामी से भगवान्‌ की कथा, इनका वैसा ही फल होता है जैसा ऊसर में बीज बोने से होता है (अर्थात्‌ ऊसर में बीज बोने की भाँति यह सब व्यर्थ जाता है)॥2॥

    * अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा। यह मत लछिमन के मन भावा॥
    संधानेउ प्रभु बिसिख कराला। उठी उदधि उर अंतर ज्वाला॥3॥

    भावार्थ:-ऐसा कहकर श्री रघुनाथजी ने धनुष चढ़ाया। यह मत लक्ष्मणजी के मन को बहुत अच्छा लगा। प्रभु ने भयानक (अग्नि) बाण संधान किया, जिससे समुद्र के हृदय के अंदर अग्नि की ज्वाला उठी॥3॥

    * मकर उरग झष गन अकुलाने। जरत जंतु जलनिधि जब जाने॥
    कनक थार भरि मनि गन नाना। बिप्र रूप आयउ तजि माना॥4॥

    भावार्थ:-मगर, साँप तथा मछलियों के समूह व्याकुल हो गए। जब समुद्र ने जीवों को जलते जाना, तब सोने के थाल में अनेक मणियों (रत्नों) को भरकर अभिमान छोड़कर वह ब्राह्मण के रूप में आया॥4॥

    दोहा :
    * काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच।
    बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच॥58॥

    भावार्थ:-(काकभुशुण्डिजी कहते हैं-) हे गरुड़जी! सुनिए, चाहे कोई करोड़ों उपाय करके सींचे, पर केला तो काटने पर ही फलता है। नीच विनय से नहीं मानता, वह डाँटने पर ही झुकता है (रास्ते पर आता है)॥58॥

    * सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे। छमहु नाथ सब अवगुन मेरे॥।
    गगन समीर अनल जल धरनी। इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी॥1॥

    भावार्थ:-समुद्र ने भयभीत होकर प्रभु के चरण पकड़कर कहा- हे नाथ! मेरे सब अवगुण (दोष) क्षमा कीजिए। हे नाथ! आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी- इन सबकी करनी स्वभाव से ही जड़ है॥1॥

    * तव प्रेरित मायाँ उपजाए। सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए॥
    प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई। सो तेहि भाँति रहें सुख लहई॥2॥

    भावार्थ:-आपकी प्रेरणा से माया ने इन्हें सृष्टि के लिए उत्पन्न किया है, सब ग्रंथों ने यही गाया है। जिसके लिए स्वामी की जैसी आज्ञा है, वह उसी प्रकार से रहने में सुख पाता है॥2॥

    * प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्हीं। मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्हीं॥
    ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी॥3॥

    भावार्थ:-प्रभु ने अच्छा किया जो मुझे शिक्षा (दंड) दी, किंतु मर्यादा (जीवों का स्वभाव) भी आपकी ही बनाई हुई है। ढोल, गँवार, शूद्र, पशु और स्त्री- ये सब शिक्षा के अधिकारी हैं॥3॥

    September 24 at 5:41pm near New Delhi, Delhi ·

भगवान सबके अपने अपने !

Shri Krishnaब्रम्हा, विष्णु और महेश, केवल ये तीन ही भगवान थे किसी ज़माने में | जनसँख्या बढ़ी तो भगवान भी बेचारे व्यस्त हो गए | अब हर किसी की मांगें पूरी करना उनके वश के बाहर हो गया तो लोगों ने भी उन्हें याद करना बंद कर दिया क्योंकि भगवान हम अपने स्वार्थ पूर्ति के लिए ही तो बना रहें हैं | जब वे हमारी मांगे पुरी नहीं कर सकते तो काहे के भगवान ?

ने भगवान को सबक सिखाने के लिए देवियों को पूजना शुरू कर दिया |लेकिन यहाँ भी लोगों ने अपने अपने पसंद और आवश्यकतानुसार देवियों की स्थापना शुरू कर दी | उनमें भी माँ सरस्वती बेचारी अल्पमत में रह गई और दुर्गा, काली, लक्ष्मी ने अपना परचम लहरा दिया | और सही भी है कि सरस्वती बेचारी विद्या और संगीत की देवी है और आज विद्या और संगीत गुणी अनपढ़ या गुंडे-मवाली के यहाँ नौकरी कर रहे होते हैं | या फिर किसी नेता की धोती पकडे देश “….को लाओ, देश बचाओ…” का नारा लगा कर देश बचा रहे होते हैं | और इन नेताओं का अध्ययन और आध्यात्म से दूर दूर तक रिश्ता नहीं होता | सरस्वती का दूसरा गुण गीत-संगीत भी पूंजीपतियों के लिए समय की बरबादी के सिवाय और कुछ नहीं होता | अम्बानी, टाटा, बिड़ला, बिलगेट्स… कोई भी गायन वादन नहीं जानता शायद लेकिन सारे माँ सरस्वती से आशीर्वाद प्राप्त लोग इनके दरवाजे पर पड़े रहते हैं |इनके यहाँ तो जूता पालिश करने वाला भी स्नातक से कम नहीं होगा |

तो बुजुर्गों ने अनुभव से समझा कि माँ सरस्वती की आराधना करके भूखे मरने से अच्छा है दूसरी देवियों की आराधना किया जाए और फिर वही परंपरा चल पड़ी |समय का पहिया और आगे बढ़ा देवियाँ भी लोगों की इच्छा पूर्ति करने में असफल रहने लगीं तो लोगों ने गुरुओं और मार्गदर्शकों को भगवान बना कर पूजना शुरू कर दिया क्योंकि उनके दिखाए रास्ते में चलने का समय ही किसके पास है ? सबके अपने अपने घर-परिवार है और फिर दुनिया में आये भी इसीलिए हैं कि बीवी बच्चे पालने हैं | सद्मार्ग, परोपकार, समाज-सेवा, देश-सेवा जैसे काम तो भगवान के जिम्मे हैं, कोई आम आदमी भला यह सारे काम कैसे कर कर सकता है ? तो लोगों ने उन लोगों को ही भगवान दिया कि जिस रास्ते पर तुम हो हम उस मार्ग पर नहीं चलेंगे लेकीन तुम्हें भोग लगा देंगे और जिस मार्ग में तुम चल रहे थे और मरने के बाद चलोगे उसमें तुम्हारा मनोबल बढाने के लिए हम भजन कीर्तन करेंगे जब हमें समय मिला, नहीं तो किराये पर लोगों को बुलवाकर भजन कीर्तन या पूजा अर्चना करवा दिया करेंगे….

ऐसे ही एक गुरु थे ठाकुर दयानंद देव जी | जिन्होंने संत होते हुए भी अंग्रेजों के विरुद्ध आवाज बुलंद किया था | परिणाम स्वरुप उन्हें भी अंग्रेजों का कोप भाजन होना पड़ा | उन्होंने विश्व शान्ति अभियान शुरू किया तो कई लोग उनके साथ जुड़ गए | लेकिन उनके म्रत्यु के पश्चात उनके शिष्यों के लिए उनके दिखाए मार्ग “विश्वशांति” को समझना कठिन हो गया या भटक गए तो उन्होंने उन्हें भगवान बना दिया | क्योंकि जिस मार्ग पर हमें नहीं चलना होता है लेकिन लोग गालियाँ न दें इसलिए मार्गदर्शक को भगवान बना देने में ही भलाई होती है |अब कोई भगवान् के रास्ते में भला पैर कैसे रख सकता है ? करना तो वही है जो हमें करना है |अब उनके शिष्यों ने शांति का अनूठा तरीका निकाला कि न तो आश्रम में लोग रहेंगे और न ही रहेगी अशांति | तो एक एक कर आश्रम से सभी लोगों को डरा-धमका कर भगाने लगे और आज स्थिति यह हो गई कि अरुणाचल मिशन का मुख्यालय वीरान हो गया | अब ट्रस्टी गर्व से कहते हैं कि आश्रम में कोई नहीं होगा तव भी ठाकुर आश्रम चला लेंगे, सब लोग भाग गए लेकिन आश्रम और मिशन का कुछ नहीं  बिगड़ा, यह ठाकुर ही का ही प्रताप है…. आज यहाँ शान्ति है क्योंकि लोग ही नहीं हैं यहाँ दो चार बचे हैं जो ठाकुर के स्वप्न की समाधि की चौकीदारी कर रहें हैं |इन चौकीदारों को यह भी नहीं पता कि ठाकुर ने मिशन की स्थापना क्यों की थी ? इन्हें तो बस इतना पता है कि रोज सुबह शाम ठाकुर को भोग लगाना चाहिए चाहे जीवित लोग भूखे मर जाएँ |

अभी दो-तीन दिन पहले ही एक ट्रस्टी से बात हो रही थी कि आश्रम में समय पर ठाकुर जी को भोग नहीं लग पाता या पूजा नहीं हो पाती इसलिए आश्रम में कुछ लोगों को अरेंज करना पड़ेगा… अरे हद हो गई ! ठाकुर ने अरुणाचल मिशन की स्थापना क्या इसलिए किया था कि लोग उनकी मूर्ति बनाकर उन्हें भोग लगायें और पूजा अर्चना करने ? यहाँ के जमीन पर भूमाफियाओं का कब्ज़ा हो रखा है कोई अच्छा वकील तलाशिये, खर्चे के लिए धन का प्रबंध कीजिये, आश्रम को आत्मनिर्भर बनाने में सहयोग कीजिये… पूजा अर्चना तो अपने आप शुरू हो जाएगा जब हमारा आश्रम किसी गरीब, असहाय, प्रताड़ित, शोषित नागरिक को सहायता प्रदान करने में सक्षम हो जाएगा | यह सब काम तो हो नहीं रहा फ़ोन और इन्टरनेट के पैसे भी जेब से नहीं निकाल पा रहे ये ट्रस्टी और ठाकुर दयानंद के पाखंडी शिष्य और भक्त, और ऊपर से घंटे-घड़ियाल बजा कर ढोंग करते हैं उनके अनुयाई होने का…धिक्कार है इन पाखंडी धार्मिक मूर्खों पर | हम तो यह भी नहीं कह रहे की जीवन भर हमें या आश्रम को खिलाना… केवल यह कह रहें हैं कि जो हानि आप जैसे स्वार्थी और लोभी दयानंद के अनुयाइयों के कारण हुआ है उनके मिशन को, उसकी भरपाई करने में सहयोग कीजिये | बहुत जल्दी ही हम आश्रम को पुनः आत्मनिर्भर बना लेंगे यह विश्वास है मुझे अपने, शिव महाराज व ईश्वर पर |प्रमाणित करने के लिए यह उदहारण काफी है कि पिछले छः महीनों में आप लोगों ने मुझे फूटी कौड़ी भी नहीं दिया लेकिन न तो मेरा फ़ोन बंद हो पाया और न ही इन्टरनेट |हाँ कुछ कुछ समय के लिए रुकावट अवश्य आती है लेकिन फिर समस्या सुलझ भी जाती है | लेपटॉप भी हटाना चाहा तो मैंने ईश्वर लोगों को सहयोग करने के लिए प्रेरित किया और सामान जोड़ जोड़ कर हमने नया डेस्कटॉप ही असेम्बल कर लिया | घटिया खाना देकर भगाना चाहा तो मैंने केवल काली चाय पर ही एक हफ्ते का समय काटा जब तक खाना फिर से नहीं सुधारा गया… | आज भी स्वामी शिव चैतन्य जी को कार्यभार सौंपा भी तो रसोइया, पुजारी सभी को छुट्टी पर भेज दिया ताकि लोगों को यह कह सकें कि शिव और विशुद्ध के बस का नहीं है आश्रम चलाना… शिव महाराज एक मिनट भी आराम किये बिना न केवल खाना बना रहें है और सभी काम भी कर रहें हैं… कोई और होता तो भाग चुका होता अब तक | लेकिन आप लोग निश्चंत रहिये  हम भागने वाले कायरों में से नहीं हैं |

तो मैं जो आप लोगों से सहायता का आग्रह कर रहा हूँ वह भी मेरी कोई अपनी मजबूरी नहीं है, केवल उस मिशन को पुनर्जीवित करने के लिए ही मांग रहा हूँ जिसके नाम पर आप लोग धार्मिक होने का पाखण्ड कर रहें हैं | और यदि आप लोग सहायता नहीं करेंगे तो भी अब मुझे आप रोक नहीं पायेंगे ठाकुर दयानंद के वास्तविक मिशन से लोगों का परिचय करवाने से | ठाकुर दयानंद ने नहीं कहा था कि उनका नाम जाप करो, घंटे-घड़ियाल बजाओ और चद्दर तानकर सो जाओ | मैं जानता हूँ कि ठाकुर जी का आशीर्वाद मेरे साथ है और मेरे मार्ग में आने वाले शत्रु और बाधा स्वतः ही हट जायेंगे | सहयोग भी मुझे उन उन लोगों से मिल रहा है जो ठाकुर दयानंद का नाम भी नहीं जानते लेकिन आप लोगों को तो मीटिंग-मीटिंग खेलने से फुर्सत मिले तब न कुछ करेंगे मिशन के लिए | हद होती नौटंकी की भी !

और हाँ मैं यहाँ यह भी स्पष्ट कर दूं की ठाकुर दयानंद आप लोगों के लिए भगवान होंगे लेकिन मेरे लिए वे उसी गुरु के सामान हैं जो मेरे साथ कदम से कदम मिलाकर साथ चलते हुए घर तक छोड़ कर आते हैं, यदि कभी में रास्ता भटक जाता हूँ तो | और यदि किसी को भगवान के रूप में मानता भी हूँ तो श्रीकृष्ण को | लेकिन उनकी स्तुति-अर्चना कैसे करनी हैं यह मुझे किसी से नहीं सीखना |

लीलामंदिर आश्रम- जीर्णोद्धार अभियान

१४ जुलाई २०१३ को आरम्भ हुई उथल-पुथल, अनिश्चितता, व मानसिक तनाव के बाद ४ सितं० २०१३ को आंशिक निश्चिन्तता आई जब स्वामी शिव चैतन्यानंद को आश्रम का अस्थाई सह प्रभारी नियुक्त करने का आश्वासन मिला और …सितं० को उन्हें लिखित रूप से प्रभार सौंप कर आवंछित उपद्रवियों को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया | संक्षेप में (अधिक विवरण के लिए पोस्ट के अंत में दिए लिंक पर जा सकते हैं )  घटना कुछ इस प्रकार है :

Thakur Dayanandठाकुर दयानंद देव जी द्वारा सन १९२१ में स्थापित लीलामंदिर आश्रम में पिछले कुछ वर्षों से असामाजिक तत्वों ने कई तरह की अव्यवस्थाएं फैला रखी थी जिस के कारण यहाँ एक भय का वातावरण बना हुआ था | आश्रम के अध्यक्ष व ट्रस्टी स्वामी ध्यान चैतन्यानंद व अन्य ट्रस्टी भी आश्रम और ‘अरुणाचल मिशन’ का मिशन ‘विश्वशांति’ को तिलांजलि देकर अपने अपने घर-परिवार में मग्न थे | परिणाम हुआ आश्रम और मिशन अपने पैरों पर खड़ा नहीं रह पाया और  लीलामंदिर आश्रम से एक एक कर सभी सन्यासी और शुभचिंतक भय, आर्थिक आभाव व मानसिक तनाव के चलते भाग गए | ऐसे में भूमाफियाओं और असामाजिक तत्वों को मनमर्जी करने से रोकने वाला कोई नहीं बचा और जो एक दो बचे भी थे तो वे भी अपनी जान के डर से खामोश रहते थे | आश्रम के काफी हिस्सों में अवैध कब्ज़ा कर लिया गया था और अध्यक्ष महोदय दिखावे के लिए केस लड़ रहे थे | अधिकतर कोर्ट की तारीख वाले दिन या तो बीमार पड़ जाते हैं या देश-भ्रमण पर निकले होते हैं और गाँव के ही एक व्यक्ति को तारीख़ आगे बढ़वाने के लिए नियुक्त किया हुआ है | सभी पक्के दस्तावेज होते हुए भी जानबूझ कर जीता हुआ केस हारने के लिए धूर्त वकील चुनना… सभी बातें आश्रम के अध्यक्ष के विश्वनीयता को खंडित करते हैं | आश्रम के अन्य ट्रस्टियों का भी मीटिंग-मीटिंग खेलने का बचपन का शौक अभी तक जारी रहना दर्शाता है कि उनमें आश्रम और ठाकुर के मिशन को लेकर गंभीरता नहीं आई है | पिछले हफ्ते ही मैंने इन्टरनेट के लिए हज़ार रूपये की सहायता राशि मांगी थी लेकिन सारे ट्रस्टी मिलकर भी हज़ार रूपये का प्रबंध नहीं कर पाए और उसके लिए भी मीटिंग-मीटिंग खेलने में लगे हुए हैं | अब बताइये हम ऐसे में आश्रम का केस कैसे लड़ सकते हैं और धान के खेत में आज तक खाद डालने के लिए आवश्यक रुपयों का प्रबंध नहीं कर पाए प्रबन्धक महोदय लेकिन अपने कमर दर्द के इलाज के लिए ३६ हज़ार रूपये खर्च कर दिए |और यह पैसे भी उन्हें लीलामंदिर आश्रम के अध्यक्ष होने के कारण ही मिला है न कि उनके अपने नाम पर |

ऐसे वातावरण में मैंने इसी वर्ष मार्च में यहाँ कदम रखा | कुछ ही दिनों में मैंने यहाँ की वास्तविक स्थिति और परिस्थिति दोनों को भांप लिया | मुझे आभास हो गया था कि स्वामी ध्यान चैतन्य जी (अध्यक्ष) ने धोखा दिया है और और झूठ बोलकर मुझे यहाँ लाया है कि वे जनकल्याण के कार्य करते हैं और मैं उनके काम में उनका सहयोग करूँ | जबकि जनकल्याण तो दूर अपने आश्रम के कल्याण के लिए भी कोई कार्य नहीं करते वे | उनका खाना अलग बनता है ठाकुर के नाम पर, टीवी, फ्रिज व अन्य सुविधाएँ केवल उनके और उनके शुभचिंतकों के लिए ही हैं | स्वामी जी को भी आभास हो गया कि उन्होंने मुझे लाकर गलती कर ली इसलिए उन्होंने इन्टरनेट और फ़ोन के पैसे देने बंद कर दिए जबकि मैं मिशन के लिए ही नेट पर काम कर रहा था | मुझे लग रहा था कि हो सकता ही कि स्वामी जी सही मार्ग पर ही हों लेकिन मैं अपने मार्ग से उनके मार्ग को नहीं समझ पा रहा इसलिए मैंने यहाँ से जाने का मन बना लिया लेकिन यहाँ के सन्यासी स्वामी शिव चैतन्यानंद जी महाराज और गांववालों ने जाने नहीं दिया | न जाने क्यों इन लोगों ने मुझसे अप्रत्याशित आशाएँ बाँध लिया कि मैं शायद आश्रम के शान्ति व सुरक्षा के लिए कुछ कर पाऊं | मैंने ईश्वर की इच्छा समझ कर कुछ समय और यहीं ठहर कर आश्रम के विनाश का स्वप्न देख रहे उपद्रवियों को पाठ पढ़ाने का निश्चय किया | लेकिन मैं आर्थिक रूप से स्वयं को बहुत असहाय महसूस कर रहा था और यहाँ के लोग भी आर्थिक सहयोग या किसी और प्रकार के सहयोग देने की स्थिति में नहीं  थे | ऐसे ही समय में एक ऐसी घटना घटी जो अभूतपूर्व थी | यहाँ के सबसे पुराने सन्यासी के ऊपर यहाँ के उपद्रवी ने हाथ उठा दिया और उन्हें घायल कर दिया |

मैंने अध्यक्ष से संपर्क करना चाहा तो उनका फोन बंद मिला | मैंने अन्य ट्रस्टियों से आवश्यक कदम उठाने का निवेदन किया तो वे मीटिंग-मीटिंग खेलने लग गए | कुल मिला कर यह कि उपद्रवी के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं हो पाई और वह आश्रम में ही पहले से भी ज्यादा प्रभाव से आने जाने लगा | गाँव में भी लोग यही कहने लगे कि इन लोगों का कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता… ऐसे में मैंने संगठन (भ्रष्टाचार विरुद्ध भारत जागृति अभियान) का सहयोग लिया.  सोनिका शर्मा जी और शिवनारायण शर्मा जी को मैं पहले से ही जानता था, इसलिए मैंने ही आश्रम के हित के लिए उनसे सहयोग माँगा था | दोनों सहर्ष सहायता के लिए आगे आये और बिना किसी से लड़ाई झगड़ा किये ही उपद्रवियों के आश्रम में आवागमन पर प्रतिबन्ध लगवाने में सफल हो गए | लेकिन मेरे इस कदम से ट्रस्टी और अध्यक्ष मेरे विरोध में आ गए और मुझे ही आश्रम से बाहर निकालने की धमकी देने लगे |

Swami Shiv Chaitanyanand

अस्थाई सह-आश्रम प्रभारी (लीलामंदिर आश्रम)

अब तक ग्रामवासी मेरे इस कदम और संगठन के शांतिपूर्ण कार्यप्रणाली के विषय में समझ चुके थे | सभी ग्रामीण अब हमारे साथ हो गए और ट्रस्टी व अध्यक्ष के विरोध में आ गए जिससे वे मेरे विरुद्ध कोई कदम नहीं उठा पाए | इसी महीने नौ तारीख़ को आश्रम का कार्यभार और कुल साढ़े छब्बीस हज़ार रूपये चार महीने के खरचे (जबकि महीने का न्यूनतम खर्च रूपये १७०००/- है ) के लिए स्वामी शिव चैतन्यानंद जी महाराज के हाथों सौंप कर अध्यक्ष स्वामी ध्यान चैतन्यानंद जी पुनः कुछ महीनों के लिए अपने घर (कलकत्ता) चले गये अपना इलाज करवाने | अब आश्रम में शान्ति और विश्वास का वातावरण है और आश्रम की स्थिति भी धीरे धीरे सुधरने लगेगी इस बात का पूरा विश्वास है | विशेष बात यह कि स्वामी शिव चैतन्यानंद जी आजकल स्वयं अपने हाथों से खाना बनाकर खिला रहें हैं |

गाँव के सभी लोग अब हमारे साथ हो गए और उपद्रवियों के लिए यहाँ पैर रखना भी मुश्किल हो गया | कल तक हम एक एक पैसे के लिए मोहताज़ थे, लेकिन आज हर तरफ से मौखिक सहायताएँ आने लगी | अभी ४ सितम्बर को ही आश्रम के ९० वर्ष के इतिहास में पहला डेस्कटॉप कंप्यूटर उधार लेकर असेम्बल किया गया , जो कि यह बताने के लिए काफी है कि कल तक डर और संशय की स्थिति के कारण जो विकास कार्य रुका हुआ था वह अब नई उमंग के साथ शुरू हो चूका है | ट्रस्टियों ने भी मौखिक आश्वासन दिया है कि भविष्य में कभी आश्रम में आर्थिक आभाव की स्थिति नहीं आने देंगे ( यह और बात है कि अभी तक आश्वासन केवल आश्वासन ही है व्यावहारिक नहीं हुआ है ) और यहाँ से डर कर भागे कई सन्यासी-संयासिनें भी अब वापस आना चाह रहें हैं |

उपरोक्त घटना में जो बात महत्वपूर्ण है वह यह कि भयग्रस्त व्यक्ति संघर्ष नहीं कर पाता भले ही उसके पास दुश्मन से दुगुनी शक्ति व सामर्थ्य ही क्यों न हो | मैंने केवल लोगों के मन से भय निकालने का प्रयत्न किया और सभी के विरोध के बावजूद भी वह कदम उठाया जो आश्रम के परिस्थिति के अनुकूल था | कुछ ने कहा कि मैं यदि स्वयं यहाँ से नहीं जाऊँगा तो मुझे अर्थी या स्ट्रेचर में जाना पड़ेगा लेकिन मैंने उन लोगों की चेतावनियों की कोई चिंता नहीं किया | एक संयासी मृत्यु के भय से मुक्त होता है और यह गुण तो मुझे विरासत में मिला था अपने जन्मदाताओं से | मैंने स्वामी शिव चैतन्यानंद जी महाराज को इस ऐतिहासिक कदम को उठाने में सहयोग के लिए मानसिक रूप से तैयार किया और उन उपद्रवियों से संघर्ष करने का बीड़ा उठाया, तो आज संगठन के सहयोग से सारा गाँव मेरे साथ हो गया | कल जो लोग मुझे आश्रम से बाहर फेंक देने के लिए तत्पर थे अब उनकी भी बोलती बंद हो गई और इस शांतिपूर्ण कदम को एक आश्चर्य मान रहें हैं | मेरे कार्य का यह शुभारम्भ है, अभी तो आगे और बड़ी चुनौतियाँ खड़ी हैं |

मैं स्वामी शिव चैतन्यानंद जी महाराज और आस पास के सभी गाँव के उन लोगों का आभारी हूँ जिन्होंने मुझ पर विश्वास दिखाया और मुझे अपने विवेक से कदम उठाने की स्वतंत्रता दी | मैं संगठन (भ्रष्टाचार विरुद्ध जागृति अभियान) का और विशेष कर सोनिका शर्मा जी और शिव नारायण शर्मा जी का आभार मानता हूँ कि उन्होंने यहाँ के आश्रम और गांववालों को एक नया उत्साह दिया और उन्हें आपस में ही एक होकर दुश्मनों से संघर्ष करने और जीतने का हौसला दिया | ईश्वर दोनों को स्वस्थ व दीर्घजीवी रखें ताकि दोनों इसी प्रकार असहाय लोगों की मदद करते रहें |

मैं स्वामी ध्यान चैतन्यानंद जी (मेरे सन्यास पिता भी), सभी ट्रस्टियों व अरुणाचल मिशन से जुड़े सभी भक्तों, सन्यासियों व श्रद्धालुओं से निवेदन करता हूँ कि स्वार्थ व पाखंड का मार्ग छोड़ कर सद्मार्ग पर आ जाएँ तो सद्गति प्राप्त होगी अन्यथा…आप सभी मुझसे कई गुना ज्यादा ज्ञानी हैं  | केवल ठाकुर जी की मूर्ति को भोग लगाकर, घंटे-घड़ियाल बजाकर और जय जय दयानंद करके आप दुनिया को मुर्ख बना सकते हैं, ठाकुर जी को नहीं | ऐसा करने का परिणाम आप लोगों के सामने है ही इस लिए मानव कल्याण के मार्ग पर आ जाएँ और मौखिक सहायता से हमारा मन न बहला कर आर्थिक सहायता करने का शीघ्र प्रयास करें और वह भी बिना किसी लोभ या शर्त के | क्योंकि अभी आश्रम की कोई निजी आय या पूंजी नहीं है कि हम संभल पायें और इस स्थिति के दोषी हम नहीं आप लोगों का स्वार्थ और स्वहित सर्वोपरि का सिद्धांत है | आप लोगों ने ठाकुर जी का पट्टा लटका कर मान लिया कि आप ठाकुर जी के मिशन का भला कर रहें हैं  और ठाकुर दयानंद देव जी आप के आभारी और ऋणी होकर आपका भला करेंगे | ठाकुर जी आप लोगों के इस व्यवहार से न केवल शर्मिंदा हैं वरन दुखी भी हैं कि आप लोगों ने उनके स्वप्न को स्वार्थ के अग्नि की चिता में जला डाला |

न तो विलायती धुनों व भाषा में वह भाव और आत्मा है जो स्वदेशी गीत-संगीत और भाषा में है और न ही विलायती डॉक्टरों और दवाओं में वह गुण व सामर्थ्य जो स्वदेशी वैध व आयुर्वेद में है | इसलिए शुद्ध भारतीय संस्कृति अपनाइए तभी आप लोग ठाकुर दयानंद जी के सिद्धांत व उद्देश्य को समझ पायेंगे |

Vishuddha Chaitanya

पथिक-एक लोक से दूसरे लोक, एक जन्म से दूसरे जन्म

मैं यहाँ अपने विषय में आप सभी से बार-बार यही कहता आया हूँ कि मुझे आप लोगों से कुछ नहीं चाहिए | न किसी पद की चाह है, न धन की और न ही आपके आश्रम की भूमि की | मैं स्वच्छंद स्वतंत्र सन्यासी हूँ और वही रहना चाहता हूँ ताकि जिस को भी सहायता की आवश्यकता हो और ईश्वर मेरे माध्यम से उस पीड़ित की मदद करना चाहता हो तो में सुलभता से उसे उपलब्ध हो पाऊं | मैं यहाँ कितने समय के लिए हूँ यह मैं भी नहीं जानता क्योंकि जब तक ईश्वर मुझे कोई और कार्य नहीं सौंपते तब तक तो यहीं हूँ |और जो कुछ भी मैं कर रहा हूँ केवल एक महान संत ठाकुर दयानंद के मिशन को पुनर्जीवित करने के लिए कर रहा हूँ और आपसे (ट्रस्टियों) से भी केवल इसलिए सहायता के लिए कह रहा हूँ कि आप लोगों की लापरवाही के कारण आज यह स्थिति आई है और इस क्षति की भरपाई आप लोगों और ठाकुर दयानंद के अनुयाइयों को की करना है | चाहे आप लोग १००-१०० रूपये इकट्ठे करके भेजें या १-१ रूपये, लेकिन इस महीने के समाप्त होने से पहले चाहिए आर्थिक सहायता ताकि हम अपने खेत व बगीचों का पुनरुद्धार कर सकें | और यह वचन देता हूँ कि उन पैसों से मैं अपने लिए कुछ नहीं खरीदूंगा यहाँ तक की आवश्यक दवाएं भी | मुझे आश्रम से जो भी रुखा-सुखा मिल जाता है वही ईश्वर का प्रसाद के रूप में ग्रहण करके और आश्रम के इस पुनरुद्धार के कार्य में सहभागी होने का गौरव ही बहुत है मेरे लिए | मैं जब यहाँ से जाऊँगा तब जो अपने साथ लाया था वही लेकर जाऊँगा अरुणाचल मिशन, आश्रम या आप लोगों का कुछ भी लेकर नहीं जाऊँगा | यहाँ तक कि मुझे आप लोगों से मान सम्मान भी नहीं चाहिए क्योंकि मान-सम्मान भी एक प्रकार का बंधन ही है जिससे मान-सम्मान देने वाला लेने वाले को अपने हाथ की कठपुतली बनाना चाहता है | हाँ   प्रेम से जो कुछ भी मुझे यहाँ से प्राप्त होगा वह मेरा पुरुस्कार व ईश्वर प्रदत्त भेंट स्वरुप होगा और उसे पुरे प्रेम से ही स्वीकार करूँगा चाहे फिर वह तिरस्कार ही क्यों न हो |  प्रेम ही एक ऐसा भाव है जो शाश्वत सत्य है और उसके पाश में बंधा व्यक्ति स्वयं को बंधक नहीं धन्य मानता है | यह और बात है कि प्रेम भी अब व्यवसाय और छल-कपट के लिए आवश्यक व्यवहारों में सम्मिलित हो चूका है |

आप सभी पाठकगण यदि कभी आप तपोवन (जहाँ रावण ने तपस्या की थी) और बाबाधाम (वह शिवलिंग जिसे रावण ने भूमि में रख दिया था और फिर उठा नहीं पाया था), रिकिया आश्रम या सत्संग आश्रम को कभी देखना चाहें तो लीलामंदिर आश्रम में अल्प्वास कर सकते हैं | वर्तमान में हमारे पास अन्य आश्रमों की तरह न तो साजो सामान है और न ही नौकर-चाकर केवल कुछ सन्यासी व सेवक हैं | इसलिए केवल वे लोग ही आयें जो भारतीय परिवेश व असुविधाओं में जी सकते हों क्योंकि हम आपको प्रेम और सेवा दे सकते हैं किन्तु किसी वैभवशाली आश्रम या होटल का सुख नहीं दे पायेंगे | आप लोगों से जो भी सहयोग राशि मिलेगी वह हमारे आश्रम को पुनः अपने पैरों में खड़े होने में सहायता ही प्रदान करेगी |

बाबाधाम या बैद्यनाथ धाम वह सिद्धपीठ है, जहाँ केवल आने भर से ही कष्टों से मुक्ति मिल जाती है, आपको बाबा से कुछ भी कहने की आवश्यकता नहीं होती | यदि आप निष्कपट, निश्छल और परोपकार के भाव से भरे हुए हैं और आपका संकल्प दृढ है तो आपके विरोधियों का पराभव और बाधाएं बाबा जी स्वतः ही दूर कर देंगे | जैसे मेरी बाधाएं अकल्पनीय तरीके दूर हुईं |

अंत में मैं ईश्वर से केवल यही प्रार्थना करना चाहूँगा कि मैंने जो भी धारणाएँ स्वामी जी और ट्रस्टियों के विषय में परिस्थिति वश बनायीं वे सभी भ्रम व मिथ्या सिद्ध हों और वे सभी मिशन को पुनः सुचारू रूप से चलाने के लिए मिल कर सहयोग करें | क्योंकि ठाकुर दयानंद देव जी ने मिशन की स्थापना इसलिए नहीं की थी कि लोग उनकी मूर्ति बना कर उसे भोग लगाएं और उनके नाम का जाप कर के मोक्ष पायें अपितु इसलिए स्थापना की गई थी कि वैमनस्यता का भाव मिटा कर लोग इंसान बन जाएँ |

सधन्यवाद, विशुद्ध चैतन्य